नई शिक्षा नीति-2020 के सन्दर्भ में भारतीय ज्ञान व्यवस्था : INDIAN KNOWLEDGE SYSTEM IN CONTXT OF NEW EDUCATION POLICY-2020

नई शिक्षा नीति-2020 के सन्दर्भ में भारतीय ज्ञान व्यवस्था

आजकल “भारतीय ज्ञान व्यवस्था” (Indian Knowledge System-IKS) की चर्चा जोरों पर है. भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा बहुप्रतीक्षित नयी शिक्षा नीति में भी भारतीय ज्ञान व्यवस्था पर बहुत जोर दिया गया है. आज देश जब अपनी आजादी के ७५ साल पूरे होने पर “आजादी का अमृत महोत्सव” मना रहा है और अपनी उपलब्धियों के साथ-साथ आजादी के नायकों को भी याद कर रहा है. प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आगामी २५ सालों के लिए ५ लक्ष्य निर्धारित किये है जिन्हें “पंचप्राण” की संज्ञा दी गयी है, ताकि भारत की आजादी के १०० साल पूरे होने तक “आत्मनिर्भर भारत” की स्थापना की जा सके. इन लक्ष्यों में देश को विश्व की आर्थिक शक्ति के साथ-साथ “विश्वगुरु” बनाना, गुलामी की मानसिकता से स्वयं को मुक्त करना, अपनी समृध्ध विरासत पर गर्व करना और इसके लिए अपने कर्तव्यों का पालन व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से करना. इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भारतीय शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन जरूरी है और नयी शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान व्यवस्था पर जोर दिया जाना, इस दिशा में किया गया जरूरी प्रयास है.

शिक्षा की भारतीय दृष्टि अत्यंत बहुविध, व्यापक और गहरी रही है, जिसमें यह विचार शामिल है कि शिक्षा को व्यक्ति के आंतरिक और बाहरी विकास दोनों को बढ़ावा देना चाहिए, साथ ही बाहरी दुनिया के बारे में सीखना अपनी वास्तविकता और स्वयं के बारे में सीखने के अनुरूप होना चाहिए. भारत में षडदर्शनों- यथा सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांशा और वेदांत के साथ-साथ अनेकानेक परस्पर विपरीत विचारधाराएँ साथ-साथ पल्लवित और पुष्पित होती रही है और इस विविधता ने भारतीय ज्ञान परंपरा को समृध्ध किया है. तैत्तरीय उपनिषद में छात्र को पांच आवरणों अथवा कोशों (अन्मयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश,आनंदमयकोश ) से आवृत्त बताया गया है जिन्हें “पंचकोश” की संज्ञा दी गयी है इसके अंतर्गत शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास को सुनिश्चित करना बताया गया है. इसके अलावा, भारतीय उपनिषदीय ग्रंथो में शिक्षा के पांच चरणों- अदिति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार का विस्तृत वर्णन मिलता है जिसे “पंचादि” की संज्ञा दी गयी है जिसके माध्यम से स्थायी ज्ञान और विस्तृत समझ को विकसित किया जा सकता है. इसी तरह अद्वैत वेदांत सीखने के 6 माध्यमों ( प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थपत्ति, अनुपलब्धि या अभाव, और शब्द या अगम) की बात करता है, जिसे “प्रमाण” की संज्ञा दी गयी है. भारतीय ज्ञान व्यवस्था में प्रश्नोत्तर का भी बहुत महत्त्व है जिसे प्राचीन भारत की शास्त्रार्थ परंपरा और उपनिषद-आरण्यक ग्रंथों के अध्ययन के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है.

भारतीय ज्ञान व्यवस्था, विश्व की श्रेष्टतम व्यवस्थाओं में से एक है तथा यह विश्व की अन्य ज्ञान व्यवस्थाओं से कई मामलो में भिन्न है. जहाँ विश्व की ज्ञान व्यवस्थाओं में भौतिक ज्ञान, तथ्य और तर्क पर जोर दिया जाता है, वहीँ भारतीय ज्ञान व्यवस्था भौतिक ज्ञान को आध्यात्मिक और संस्कार युक्त तरीके से दिए जाने पर बल देती है. भारतीय ज्ञान व्यवस्था में दो तरह के ज्ञान की संकल्पना है- विद्या और अविद्या, जहाँ विद्या आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति का साधन है (सा विद्या या विमुक्तये) और इसके लिए संयम तथा विशिष्ट पात्रता जरुरी है,  वहीं अविद्या भौतिक व सांसारिक ज्ञान की प्राप्ति का साधन है, जिसके लिए किसी विशिष्ट पात्रता की आवश्यकता नहीं है. साथ ही भारतीय ज्ञान व्यवस्था में ये दोनों तरह के ज्ञान (विद्या और अविद्या) अलग न होकर आपस में सम्बंधित और साहचर्य है. उदहारण के रूप में- आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, पाणिनि, पतंजलि, चरक जैसे भारतीय मनीषी ऋषि के साथ-साथ गणितज्ञ, वैज्ञानिक आदि भी रहे है.  विश्व की अन्य ज्ञान व्यवस्थाओं में जहाँ आप धार्मिक तथ्यों पर तर्क नहीं कर सकते है, वहीँ भारतीय ज्ञान व्यवस्था में शास्त्रार्थ की समृध्ध परंपरा रही है और विभिन्न विचारधाराओं का सह-अस्तित्व भी देखने को मिलता है. विश्व की अन्य ज्ञान व्यवस्थाओं में जहाँ महिला शक्ति को धर्म और ज्ञान परंपरा में स्थान नहीं दिया गया है, वहीँ भारतीय ज्ञान परंपरा में प्रारंभ से ही गार्गी, अपाला, घोसा, लोपामुद्रा जैसी अनेकानेक विदूषी महिलाओं का उदाहरण दृष्टव्य है और समाज में महिलाओं का सदैव विशिष्ट स्थान रहा है, यहाँ तक कि धार्मिक विधिविधान और कर्मकांड भी महिला के साहचर्य के बिना संपन्न नहीं किये जा सकते है. इन तथ्यों से भारतीय ज्ञान व्यवस्था के सर्वोच्चता को समझा जा सकता है.

सदियों की औपनिवेशिक दासता और स्वतंत्रता बाद भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को समाहित किये जाने के कारण हम भारतीय ज्ञान परंपरा से कट गए और मैकाले की शिक्षा व्यवस्था के दास होकर रह गए, जिसने शिक्षा का सम्पूर्ण उद्देश्य ही बदल दिया और इसे शासकीय कार्य में सहयोग के लिए सिर्फ स्थानीय लिपिकीय संवर्ग को उत्पन्न करने का माध्यम बनाया. आज पुनः आवश्यकता है कि भारतीय ज्ञान व्यवस्था को भारत की प्राचीन परम्पराओं और मान्यताओं के सन्दर्भ में विकसित कर हर भारतीय को आध्यात्मिक और आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करे और भारत को पुनः विश्वगुरु के रूप में स्थापित किया जाये. भारत ने शून्य, दसमलव पद्धति, योग, आयुर्वेद, स्थापत्य, शिल्प, रसायन और खगोलविज्ञान  समेत अनेक क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान परंपरा के दम पर अनेकों उपलब्धियां हासिल की, परन्तु कभी भी अपने को आक्रान्ता और महाशक्ति के रूप में स्थापित नहीं किया बल्कि वह सदियों से विश्वगुरु के रूप में दुनिया को प्रेरणा देता रहा है और “वसुधैव-कुटुम्बकम” के आदर्श पर चलता रहा है. यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत के संपर्क में आये लोगों ने भारत का यशोगान किया है और भारतीय ज्ञान परंपरा की प्रसंशा की है, इनमें मेगास्थनीज़, अल-बरुनी, विलियम जोंस, चार्ल्स विल्किंस, कोलिन मकान्ज़ी, मैक्स-मूलर, एनी बेसेंट समेत अनेकानेक- अनगिनत विद्वान् शामिल है. आज पूरी दुनिया भारतीय ज्ञान परंपरा को अपनाते हुए आगे बढ़ना चाहती है ताकि वैश्विक शांति के साथ-साथ सह-अस्तित्व और सतत आर्थिक विकास को सुनिश्चित किया जा सके. अतः ये उपयुक्त समय है, जब एक देश के रूप में भारत का हर एक नागरिक भारतीय ज्ञान परंपरा को न सिर्फ अपनाये बल्कि इसके प्रचार प्रसार का माध्यम भी बने, जिससे भारत पुनः विश्वगुरु के दर्जे को प्राप्त कर वैश्विक विकास की दशा व दिशा निर्धारित कर सके.

भारत की नयी शिक्षा नीति के अनुसार, भारतीय ज्ञान व्यवस्था में प्राचीन भारत का ज्ञान और आधुनिक भारत में इसके योगदान और इसकी सफलताओं और चुनौतियों और शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण आदि के संबंध में भारत की भविष्य की आकांक्षाओं की स्पष्ट समझ शामिल होगी। मूलभूत स्तर से आगे के सभी पाठ्यक्रम और शिक्षाशास्त्र को भारत और स्थानीय संदर्भ में, दृढ़ता से निहित करने के लिए फिर से डिजाइन किया जाएगा और संस्कृति, परंपराओं, विरासत, रीति-रिवाजों, भाषाओं, दर्शन, भूगोल, प्राचीन और समकालीन ज्ञान, सामाजिक और वैज्ञानिक के संदर्भ में सिद्धांत सीखने के स्वदेशी और पारंपरिक तरीके आदि तत्वों को एक सटीक और वैज्ञानिक तरीके से पूरे स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।  । यह सुनिश्चित करने के लिए कि शिक्षा हमारे छात्रों के लिए अधिकतम प्रासंगिक, प्रासंगिक, दिलचस्प और प्रभावी है, कहानियों, कलाओं, खेलों, उदाहरणों, समस्याओं आदि को जितना संभव हो उतना चुना जाएगा। विचार, अमूर्तता और रचनात्मकता वास्तव में सबसे अच्छी तरह तभी पनपेगी जब सीखने की जड़ें भारतीय और स्थानीय संदर्भ में निहित होंगी।
 

लेखन द्वारा :

अम्बरीश कुमार गुप्ता

प्राचार्य, केंद्रीय विद्यालय, भेल, जगदीशपुर, उ.प्र.

ईमेलl- akgkvs@gmail.com

शिक्षा: स्नातकोत्तर-प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्व, शिक्षाशास्त्र,

राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (NET) उत्तीर्ण  : इतिहास, पुरातत्व, भारतीय संस्कृति.

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